रेल बजट एक सालाना कार्यक्रम की तरह हर साल आता है और अगले दिन अखबारों के फ्रंट पेज सहित कई पन्नों का स्पेस खाकर चला जाता है। विभिन्न मतों और वादों से संबद्ध बुद्धिजीवी लोग कुछ दिनों तक इसके पक्ष-विपक्ष में एक दूसरे का बाल और माथा नोंचते रहते हैं। अखबारों में बजट का विशद वर्णन किये आलेख यूँ छपते हैं मानो किसी प्रतियोगी परीक्षा में पेपर सेट करने वाले ने आसान प्रश्न पूछकर किसी मेधावी छात्र का ईगो हर्ट कर दिया हो और पट्ठे ने उत्तर देने के लिए तय शब्द-सीमा को ऐसे लांघा हो जैसे हनुमान जी ने कभी सात समुद्र लांघा था। बहरहाल रेल कई कहानियां प्रतिदिन कहता है, हमें बहुत सारी स्मृतियाँ देता है, हमें बहुत सारी चीज़ें सिखाता है। अलग बात है कि ये कहानियां, सीख और संस्मरण किसी अखबार के पन्ने का हिस्सा शायद ही कभी बन पाते हैं। लेकिन ये सब चीजें हमारे जीवनपथ की अनुभव यात्रा के हमराही बन जाते हैं। ऐसा ही एक वाक़या मैं आपसे साझा करना चाहूंगा। इस संस्मरण ने तकरीबन दो-ढाई साल से मेरे जेहन में घर किया हुआ है और बजट के बतरस के बीच आप सबके सामने आना चाह रहा है।
बात जुलाई 2012 की है। मैं बीएसएनएल पटना में ट्रेनिंग कर रहा था। चूँकि पटना से मेरे गांव की दूरी बस 90 किलोमीटर है और मेन लाइन में होने के कारण ट्रेन की भी कोई कमी नहीं है, इसलिए मैं मोकामा से ही अप-डाउन करता था। पटना पहुँचने के लिए एक्सप्रेस ट्रेनें सवा से दो घंटे का समय लेती हैं और लोकल/पैसेंजर ट्रेनों को लगभग तीन घंटे का समय लगता है। ट्रेनिंग 10 बजे शुरू हो जाती थी और रेलवे की कृपा से एक्सप्रेस ट्रेनें या तो 6 बजे से पहले थीं या 8 बजे के बाद। सवा छह बजे एक पैसेंजर ट्रेन "मोकामा-दानापुर शटल" होती थी। मोकामा स्टेशन से ही खुलने के कारण कहें या मोकामावासियों का पुण्य-प्रताप समझें, उस ट्रेन में सीट मिलने में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। शटल के खुलने के टाइम उसमें इतना अफरात जगह होता था कि सीट पर पैर फैलाकर सोया जा सके भले ही आधे घंटे में उसमें पैर रखने की जगह भी न मिले।
उस दिन रात में ठीक ठाक बारिश हुई थी। सुबह होने तक बरखा रानी कुछ अलसा-सी गयी थी मानो रात भर बरसते-बरसते उसकी आँख लग गयी हो। मैं हर दिन की तरह स्टेशन जाने के लिए नियत समय पर घर से इस उम्मीद के साथ निकला कि आगे चौक पर रिक्शा मिल ही जायेगी। चौक पर पहुँचते ही रिक्शा के बदले निराशा हाथ लगी। आमतौर पर वहां दर्जनों रिक्शा वाले खड़े मिल जाते थे पर उस दिन एक भी रिक्शा वाला नज़र नहीं आया। मैंने रिक्शे के इंतज़ार में समय बर्बाद करने की बजाय पैदल दांडी मार्च करना ज्यादा उचित समझा और रास्ते की कीचड़-पानी से बचते-सनते, लंबे -लंबे डग भरते हुए स्टेशन की ओर कूच कर दिया।
स्टेशन पहुंचकर ट्रेन में प्रवेश करते ही सीटें अपेक्षानुरूप मॉनसून का लुत्फ़ उठाये और बाकायदा बारिश में नहाये यात्रियों के इस्तकबाल में बिछी हुई मिलीं। मैंने भी खिड़की किनारे वाली एक सीट के अभिनंदन को स्वीकारते हुए उसे पहले अपनी रुमाल से सहलाया और गदक कर बैठ गया।
ट्रेन खुलने में कोई पांच एक मिनट रहे होंगे। इस पैसेंजर ट्रेन के बारे में एक बड़ी दिलचस्प बात सुनने को मिलती है। वो ये कि इसके एकबार खुल जाने के बाद राजधानी एक्सप्रेस को छोड़कर कोई और ट्रेन इसे ओवरटेक नहीं कर सकती। कारण यह कि इसमें कई विद्यार्थी और सरकारी तथा प्राइवेट नौकरी-पेशा वाले लोग यात्रा करते हैं और उन्हें टाइम पर कॉलेज-दफ्तर इत्यादि पहुंचना होता है। इसलिए ये शटल लेट नहीं हो सकती। मोटे-मोटे तौर पर कहें तो ये इस रूट में चलने वाली ट्रेनों की राहुल द्रविड़ या मिस्टर भरोसेमंद थी। बहरहाल मैं अपनी सीट पर आराम से लदकर बैठ गया था। अपनी जेब से ईयरफोन निकाले और उसे कानों में यूँ लगाया जैसे किसी आदर्श युवा के आधुनिक युगधर्म को निभा रहा हूँ। इंजन की सीटी बजने के साथ ही ट्रेन खुल गयी। मैं जगजीत सिंह के गाये मधुरातिमधुर भजनों के सहारे सवेरे उठने के चक्कर में नींद की मात्रा में हुई कमी को कम्पेन्सेट करने की कोशिश में जुट गया।
शटल हर हॉल्ट और छोटे-बड़े स्टेशनों पर रूकती और यात्रियों के एक जत्थे को समेटते हुए आगे बढ़ जाती। मैं भी श्वाननिद्रा का आनंद उठा रहा था। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती चली गयी और ट्रेन के अंदर की शांति बिलकुल जाती रही। मैं भी सीधा होकर बैठ गया और मनोरंजन के नये रास्ते ढूंढने लगा। स्कूल और कॉलेज-गोइंग स्टूडेंट्स अपनी पीठ पर बैग टाँगे, नौकरी-पेशे वाले बाबू लोग हैंडबैग लटकाये, दूधवाले बड़े-बड़े कैन उठाये, फल और सब्जी वाले बड़ा-बड़ा टोकड़ा लादे बोगियों में घुसे चले आये थे। ट्रेन में रत्ती भर भी जगह नहीं बची थी। लगभग सात बजने को चले थे और बाढ़ स्टेशन आ गया था। मोकामा के बाद ये पहला बड़ा स्टेशन है। ट्रेन कुछ खाली हुई और जितनी खाली हुई उससे कई गुणा ज्यादा वापस भर गयी। लोग खुद को जहाँ-तहाँ जैसे-तैसे एडजस्ट कर रहे थे।
उधर चार लोगों ने गमछा फैलाया और उसका एक-एक सिरा थामे ताश के पत्ते पीसते हुए लोकल कॉमनवेल्थ फरियाने में लग गए। अपनी ताश में कभी रूचि नहीं रही है सो मैंने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। इतने में सामने और बगल की सीट पर बैठे लोगों ने "बिहार की राजनीति" विषय पर अपनी थीसिस जमा करने शुरू कर दिए थे। राजनीति में रूचि होने के कारण मैंने भी संजीदगी के साथ सुनना शुरू कर दिया। मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया क्योंकि उसने मेरे मनोरंजन का जरिया भेज दिया था। ये मनोरंजन यूँ ही चलता रहे इसलिए इस बहस को जीवित रखने की जिम्मेवारी मुझ पर आन पड़ी थी। मैं भी इस जिम्मेवारी को उठाने से कतई नहीं पीछे हटा। अतः जब-जब बहस मंद पड़ने लगती तो मैं उत्प्रेरक का काम कर देता और बहस एकबार फिर चहचहा उठती। आस-पास खड़े दर्जनों लोग कान पाते इसका आनंद उठा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो ये बोगी नहीं संसद के सेंट्रल हॉल हो और ये पैसेंजर ट्रेन लोकतंत्र और उसके मूल्यों की सबसे बड़ी संवाहक हो। अलग-अलग जाति-धर्म, उम्र, वर्ग, नौकरी,व्यवसाय के लोग एकसाथ बिना किसी भेदभाव के चल रहे हैं। पॉलिटिकल साइंस की दृष्टि से देखा जाए तो यह ट्रेन समावेशी लोकतंत्र या इन्क्लूसिव डेमोक्रेसी का अनूठा मॉडल हो सकती है।
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शटल में सफर की एक तस्वीर |
इसी तरह अथमलगोला, बख्तियारपुर इत्यादि स्टेशनों को पीछे छोड़ती ये ट्रेन लकदक करती करौटा हॉल्ट पर रुकी। करौटा माँ काली के एक प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर जाने वाले लोग उतर गए। ट्रेन कुछ खाली जरूर हुई थी पर बैठने की जगह अब भी नहीं थी। इतने में एक महिला मेरी सीट के आगे खड़ी हो गयी। नाम पता नहीं, उम्र करीब 55-60 साल, कद सामान्य, रंग गेंहुआ, ज्यादातर बाल सफ़ेद, चेहरे पर झुर्रियाँ - ये उसका कायिक परिचय है। ट्रेन खुल चुकी थी और वो चुपचाप खड़ी रहकर ही इधर-उधर देखने लगी। माता-पिता के सिखाये मैनर्स कहिये अथवा डेढ़ घंटे से एक ही आसन में बैठे होने का असर कहिये, मैंने अपनी सीट उस महिला के लिए छोड़ दी और "माता जी आप बैठ जाइये" ऐसा कहकर उसे बिठा दिया। हालांकि एक बार तो उसने इशारे में मना भी किया लेकिन मैं उठकर खड़ा हो गया था इसलिए मेरे आग्रह को वो टाल न सकी और बैठ गयी। मुझे उसकी आँखों में कृतज्ञता के संकेत दिखाई दिये। मगर मैंने कोई ख़ास परोपकार का काम नहीं किया है - ऐसा सोचकर मैंने उसे देख कर भी अनदेखा कर दिया। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी।
फतुहा स्टेशन आ गया था। उस महिला के बगल वाली सीट पर जो व्यक्ति बैठा हुआ था वो उतर गया और सीट खाली देखकर मैं फिर से बैठ गया। मुझे बैठे हुए कोई दस सेकंड ही हुए होंगे कि फिर एक देवी जी सीट के पास आ धमकीं। मैंने अपनी सीट पूरी विनम्रता से एक बार पुनः छोड़ दी थी। इसके आगे जो हुआ वो किसी फ़िल्मी सीन से कम नहीं था। दोनों महिलाओं की एकदूसरे से नज़र मिलते ही दोनों ऐसे गले लग गयीं जैसे कुंभ के मेले की बिछड़ी हुई 12 साल बाद एकदूसरे से मिल रही हों। दूसरी वाली महिला जो अभी-अभी आई थी, वह तो "अगे परबतिया" कहकर चहक उठी लेकिन पहली महिला (परबतिया) की आँखों से अविरल अश्रु-प्रवाह शुरू हो गया। ऐसा लग रहा था जैसे उसने कई जन्मों के दर्द और गुब्बार को इसी दिन के लिए इकट्ठा कर रखा हो। हॉल्ट दर हॉल्ट आते जा रहे थे, गाड़ी रुक रही थी पर उसके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मुझे इतना तो अंदाजा हो चला था कि ये दोनों पूर्वपरिचित हैं। मैंने सोचा - क्या ये दोनों बहने हैं ? या कोई और रिश्ता है दोनों के बीच ? छोड़ो यार... तुम्हें क्या लेना-देना इससे ? मन के किसी कोने से आवाज़ आई।
बहरहाल दोनों महिलाओं के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया था और मुझे ये समझते देर नहीं लगा कि परबतिया गूँगी है। वह बोल नहीं सकती। परबतिया रो-रोकर अपनी कहानी हाथों के इशारों के सहारे उस दूसरी महिला को सुनाए जा रही थी। बातचीत के क्रम में उसने मेरी ओर इशारा किया और उस दूसरी महिला से कुछ कहा। मैं परबतिया के इंगितों वाली भाषा को समझ नहीं पाया इसलिए उस दूसरी महिला से पूछ दिया "ये मेरी ओर इशारा कर आपसे क्या कह रही हैं ?"
उसने कहा - "ये कह रही है कि एक ये लड़का है जिसने बिना किसी जान-पहचान के बगैर कुछ कहे-सुने मेरे लिए अपनी सीट छोड़ दी। उसके मन में मेरे लिए इज्जत की भावना है और एक मेरे बेटे हैं जिन्होंने मुझे घर से निकाल दिया है।"
ये सब सुनते ही मैं उधेड़बुन में फंस गया कि अपनी प्रशंसा पर गर्व महसूस करूँ या परबतिया की पीड़ा पर ग्लानि! न जाने मेरे मन में क्या आया मैं दूसरी महिला से पूछ बैठा कि "आप इनकी कौन लगती हैं ? और इनके कितने बेटे हैं ?"
उस महिला ने बताया कि "हमारी सहेली है ये। हम और परबतिया एक ही गाँव के हैं और एकदूसरे को बचपन से जानते हैं।" आगे उसने बताया कि "परबतिया के पति छोटे-मोटे किसान थे जो बहुत पहले किसी बीमारी के कारण गुजर गए। परबतिया के दोनों बेटे उस समय छोटे थे। बड़ा वाला 6-7 साल का रहा होगा और छोटा वाला दस-ग्यारह महीने का था। परबतिया ने पाल-पोष कर दोनों को बड़ा किया। बड़े वाले बेटे की शादी होते ही वो दिल्ली चला गया और लौटकर वापस नहीं आया। उसने माँ और छोटे भाई की खबर लेनी भी बंद कर दी। परबतिया के पास जो थोड़े-बहुत जेवर-गहने थे उसे बेचकर उसने छोटे बेटे को पढ़ाया-लिखाया और उसे सरकारी नौकरी लग गयी। नौकरी लगने के बाद उसने शराब पीना शुरू कर दिया और इसके लाख मना करने के बावजूद रोज दारू पीकर घर आने लगा। एक दिन माँ-बेटे में बहुत कहा-सुनी हुई और शराब के नशे में धुत्त बेटे ने परबतिया को पीट-पीटकर घर से निकाल दिया।"
ट्रेन के भीतर की अन्य गतिविधियों से बेखबर मैं अंदर से हिल गया था। पर किसी तरह मैंने उससे पूछा "ये कहाँ रहती हैं फिर ? इनके नैहर या रिश्तेदार में कोई नहीं है जो इनके बेटे को समझा सके ?"
वो बोली " नैहर में तो कोई नहीं बचा और बाकी के रिश्तेदारों ने तो परबतिया के पति की मौत के समय से ही इससे मुंह मोड़ लिया था। ये है भी स्वाभिमानी, किसी के पास मदद मांगने नहीं गयी। जहाँ-तहाँ मंदिरों में रह लेती है। अब भगवान की कृपा कहो या संयोग हमको ये मिल गयी है तो इसे हम अपने घर ले जाते हैं और इसके बेटे को बुलाकर समझाने की कोशिश करेंगे। देखते हैं क्या होता है !"
राजेंद्रनगर टर्मिनल स्टेशन पास कर चुका था। परबतिया की यह करूण व्यथा सुनकर मेरी आँखों में आंसू छलक आये थे। पर मैंने उसे आँखों की कोर से बाहर नहीं आने दिया। परबतिया मुझे टुकुर-टुकुर देख रही थी। मैंने परबतिया की सखी का धन्यवाद किया और हाथ जोड़ते हुए "अच्छा माता जी चलता हूँ" कहकर मन में एक टीस लिए असहाय-सा गेट की ओर चल पड़ा। अगला स्टेशन पटना जंक्शन था।