बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

कबीरा यह घर प्रेम का...

"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर मांहि ।।"

भक्तिकाल के पंक्ति-पावन संत कवि कबीर इस दोहे के माध्यम से प्रेम और समर्पण में साहस तथा निर्भयता की भूमिका को स्पष्ट करना चाहते हैं। कोई व्यक्ति अपने अंदर के काम,क्रोध, मद,मोह, लोभ और बैर जैसे दुर्विकारों को पराजित कर के ही साहसी और बहादुर बन सकता है। अपनी प्रेयसी/प्रियतम का सच्चा प्रेमी अथवा अपने पूज्य का अनन्य उपासक होना किसी कायर के वश की बात नहीं है, ऐसा कोई बहादुर ही कर सकता है। कवि के अनुसार जहाँ अंहकार हो वहां प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम दो ऐसे दिलों के बीच ही पनप सकता है जो अहमन्यता का पूर्णतया परित्याग कर अपने अंतस में दया,करुणा तथा समता को समेटे हुए हों। किसी से प्यार करना या यूँ कहें किसी के हृदय रूपी घर में प्रवेश पाना अपनी बुआ/चाची के घर में जाने जैसा बिलकुल भी नहीं है। इस पवित्र प्रेमालय में कोई निःस्वार्थ व्यक्ति ही सुगमता से प्रविष्ट हो सकता है। जैसे ईश्वर के समक्ष शरणागत हुए बिना सच्ची प्रार्थना नहीं की जाती ठीक उसी तरह शर्तों के बिनाह पर मोहब्बत भी नहीं की जाती। प्यार भी प्रतिबद्धता और समर्पण चाहता है।     

3 टिप्‍पणियां:

  1. जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं ।
    यह ब्योपरी तिहारो ऊधो। ऐसोई फिर जैहैं ।
    जापै लै आए हौ मधुकर तके उर न समैहैं ।
    दाख छडि कै कटुक निम्बओरि को अपने मुख खैहैं?

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